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शहरों ने कैसे बदल दी फूलदेई? मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है उत्तराखंड का यह लोकपर्व

इस लोक त्यौहार के दिन बच्चे घरों की देहरी/दहलीज पर खुशहाली का गाना गाते हुए फूल, गुड़ और चावल डालते हैं. जिस कारण इसे फूलदेई कहा जाता है. बच्चे सुबह-सुबह ही अपनी डलिया लेकर गांवों के घरों की ओर निकल पड़ते हैं और सबकी धैली पर गुड़, चावल और फूल डालकर उनकी खुशहाली की कामना में लोकगीत गाते हैं.

आज उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई है. प्रकृति को पूजने के इस पर्व को शहरों ने बदल दिया है. वक्त की कमी और अपनी जड़ों से कटे होने के कारण महानगरों में रहने वाले उत्तराखंड मूल के निवासियों के बीच इस लोक त्योहार को लेकर जितना क्रेज रहता है, उतनी ही उदासीनता भी देखी जाती है. वैसे भी शहर या तो हमारे पर्व-त्योहारों को बाजार के मुहाने पर खड़ा कर देते हैं, या फिर उनकी खूबसूरती और बुनावट को बदल देते हैं.

जिन महानगरों और बड़े शहरों में प्रकृति को निहारने के लिए आंखें तरस उठती हैं, वहां वसंत के आगमन का सूचक और प्रकृति की उपासना का यह फूलदेई त्यौहार (Phool Dei Festival of Uttarakhand) किस तरह मनाना संभव होता होगा आप इस बात को समझ सकते हैं. फिर भी खुशी इस बात की है कि यह लोक त्यौहार उत्तराखंड के बाहर भी लोगों की जुबान पर रहता है और इसकी खूबसूरती और प्रकृति के साथ सामंजस्य की सीख, लोगों को  प्रकृति से जुड़ने और उसके करीब आने के लिए प्रेरित करती है.

इस लोक त्यौहार (Uttarakhand Phool Dei Festival) के दिन बच्चे घरों की देहरी/दहलीज पर खुशहाली का गाना गाते हुए फूल, गुड़ और चावल डालते हैं. जिस कारण इसे फूलदेई कहा जाता है. बच्चे सुबह-सुबह ही अपनी डलिया लेकर गांवों के घरों की ओर निकल पड़ते हैं और सबकी धैली पर गुड़, चावल और फूल डालकर उनकी खुशहाली की कामना में लोकगीत गाते हैं. जिसका भावार्थ है कि आप जितना देंगे उतनी ही आपको बढ़त मिलेगी. फूल डालने वाले बच्चों को फुलारी कहते हैं. इस त्यौहार में पीले रंग की फ्योली के फूल का विशेष महत्व है और उसके पीछे की कहानी बेहद मार्मिक है.

मेरे बचपन की स्मृतियां के चलचित्र में इस तरह बसता है फूलदेई

मैं जब यह लिख रहा हूं तो मेरा बचपन मेरी स्मृतियों में कौंध आया है और फूलदेई का विंब आंखों के आगे चलने लगा है. अब टोकरी और भकार- दोनों ही छूट गये। बुरांश और फ्योली भी आंखों से ओझल हो गई. बस स्मृतियां हैं जिन्हें ईजा, इस त्यौहार के दिन आंखों के आगे उकेर देती है. देहरी पर सुबह ही फूल रख दिए गए हैं.  ईजा के साथ-साथ हम भी बचपन में लौट चले हैं. तीनों भाई-बहन के हाथों में टोकरी है.

टोकरी में बुरांश, फ्योली, आड़ू और सरसों के फूल.

गुड़ की ढेली और मुट्ठी भर चावल. गोद में परिवार में जन्मा नया बच्चा जिसकी पहली फूलदेई है. तलबाखई से लेकर मलबाखई तक हर घर में हम बच्चों की कितनी आवोभगत हो रही है. तन-मन में स्फूर्ती भरती वसंत की ठंडी हवा में उल्लासित हमारा मन, अठन्नी और चवन्नी की गिनती के साथ ही गुड़ के ढेले में रमा हुआ है. पैसों की खनखनाहट के साथ ही हमारे सपने भी खनक रहे हैं. बहन के बालों में फ्योली का फूल लहलहा रहा है. भाई का मन गुड़ और मिठाई में रमा हुआ है.

हर धैली पर फ्योली का फूल चढ़ाकर त्यौहार की शुभकामना देता हमारा उल्लासित मन अपनी टोकरी आगे कर गुनगुना रहा है-

फूलदेई छम्मादेईजतुक दिछा उतुक सईदैणि द्वार भर भकार…

फूलदई ही है जिसने बचपन से ही हमें रचनात्मकता और संतुष्टि का पाठ पढ़ाया. अपने साथ ही दूसरों की सुख-समृद्धि की कामना की भावना जगाई. प्रकृति के साथ इंसानी रिश्ते का पाठ पढ़ाया. हाथ जोड़ फूल चुनने की अनुमति मांगने की शिक्षा सिखाई.

हमारे बचपन में फूलदेई पुराने वक्त से थोड़ा बदल गई थी.

पहले जब चावलों का अभाव होता था तो डलिया में झुंगर रखा जाता था.  जो बेहद गरीब होते थे- अगर उनके घर में झुंगर और गुड़ का भी अभाव है तो वह टोकरी में प्रतिकात्मक तौर पर कुछ न कुछ जरूर रखते थे. हमारे बचपन में फूलदेई में खाजे मिलने लगे थे.  गुड़ के साथ ही टोकरी में मिठाई और बढ़िया पकवान भी रखे जाने लगे थे.  खीर मिलने लगी थी.

दौर बदला फूलदेई भी बदल गई

टोकरी तो नहीं है लेकिन घर की धैली पर फूल जरूर रखे हुए हैं.

ईजा छोटे भाई के साथ मिलकर पकवान बना रही है- और साथ ही मैं अपने उन दिनों को याद कर रही है जब नानी हर फूलदेई पर पुवे बनाकर बेटे को भेटने आ जाती थी.  साथ ही में जंगल से लड़की बिनकर भी ले आती थी. हमारा आज भी प्रकृति से ही संघर्ष है. व्यक्ति से संघर्ष की शिक्षा तो हमें मिली ही नहीं.. आवो वसंत सुकुमार स्वागत करें अपार. हमारा अस्तित्व  प्रकृति से है. प्रकृति और पर्यावरण बचेगा तो हम बचेंगे.

इस त्यौहार के पीछे की लोक कहानी

फूलदेई और फुलारी त्यौहार के संबंधित उत्तराखंड में बहुत सारी लोककथाएं प्रचलित हैं. जिनमें से एक फ्योली की कहानी है. फ्योली नामक एक वनकन्या थी जो कि जंगल मे रहती थी. उसी के कारण जंगल मे हरियाली और सम्रद्धि थी. एक दिन एक राजकुमार उस जंगल मे आया और उसे फ्योली से प्यार हो गया. वह उससे शादी करके उसे अपने देश ले गया .

फ्योली को ससुराल में मायके की याद आने लगी. अपने जंगल की याद आने लगी. दूसरी तरफ उसके बिना जंगल के पेड़ पौधें मुरझाने लगे और जानवर उदास रहने लगे. फ्योली की सास उसे मायके नहीं जाने देती थी. जिस कारण मायके की याद में फ्योलीं ने दम तोड़ दिया. ससुराल वालों ने उसे पास में ही दफना दिया. कुछ दिनों बाद जहां पर फ्योली को दफनाया गया था उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था. उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से फ्योली रख दिया. तब से पहाड़ो में फ्योली की याद में फूलों का त्यौहार मनाया जाता है. इस त्यौहार को लेकर यह लोक में प्रचलित कहानी है.

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