ऑस्कर पुरस्कारों की दहलीज तक जा पहुंची हिंदी फिल्म ‘लगान’ का जब भी जिक्र होगा, इसके खास किरदार लाखा की याद दर्शकों को जरूर आएगी। हिसार की मिट्टी में अपने भीतर के कलाकार को पहली बार चाक पर चढ़ाने वाले यशपाल शर्मा की बनाई फिल्म ‘दादा लखमी’ को सर्वश्रेष्ठ हरियाणवी फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला है। इस फिल्म को बनाने के लिए यशपाल ने जो कुछ सहा, वह कम ही लोगों को पता है। रंगमंच से लेकर सिनेमा तक यशपाल ने वही किरदार किए जो उनके मन को भाए। अपने भीतर के अदाकार के लिए उन्होंने समझौते से हमेशा दूरी बनाए रखी। चाहते तो मुंबई आने के बाद छोटे परदे के धारावाहिकों के जरिये लाखों रुपये भी कमा सकते थे, लेकिन नहीं, उनकी अपनी एक जिद थी और इसी जिद के बूते उन्होंने अपने आसपास सिनेमा की दुनिया बदल दी है। ‘हाशिये के सुपरस्टार’ सीरीज की 11वीं कड़ी में आज बात इन्हीं दमदार अभिनेता यशपाल शर्मा से..
पैसे नहीं थे तो मां को नहीं बचा पाए
हमारा बचपन बहुत ही गरीबी में गुजरा। जब मै दसवीं में पढ़ रहा तो मां की कैंसर से मृत्यु हो गई। उस समय हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि मां का इलाज करा सके। मां जब जिंदा थी, सुबह चार बजे से रात को 11 बजे तक काम करती रहती थीं। बड़े भैया को पैसे की वजह से पढाई छोड़नी पड़ी। हम सात भाई बहन है। छोटी बहन को बचपन में कुत्ते ने काट लिया था, उसका इलाज नहीं करवा पाए और उसकी एक महीने के अंदर ही मृत्यु हो गई। खाने को पैसे नहीं होते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तीन भाई एक टाइम खाना खाते थे और बाकी तीन दूसरे टाइम खाना खाते थे।
पंक्चर लगाए, घरों में झाड़ू पोंछा किया
मेरे घर में गाय और बकरियां थीं। गाय के लिए मैं घास काटकर लाता था और बकरियां चराने जाता था। बकरियां चराने जाते तो किताब भी लेकर जाते और वहीं पर पढ़ते। मां के जाने के बाद मैंने लोगों के घरो में झाड़ू पोछा भी लगाया। साइकिल के पंचर बनाए। तेल की फैक्ट्री और टीन की फैक्ट्री में काम किया। टीन की फैक्ट्री में तो काम करते वक्त हाथ कट जाते थे। इस तरह से बहुत सारे छोटे छोटे काम किए लेकिन खुशी बहुत मिलती थी। उस समय खुशी का पैसे से कोई ताल्लुक नहीं था। जीवन कठिन जरूर था, लेकिन उसमें बहुत सुकून था। मेरा मानना है कि जितना कठिन रास्ता रहता है, मंजिल उतनी ही आसान होती है।
पिता पैसे कमाते और मां घर संभालतीं
मेरे पिता प्रेम चंद्र शर्मा नहर डिपार्टमेंट में चपरासी थे। उन्हें हिसार में सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। उसी में हम लोग रहते थे। मेरी मां विद्या देवी और मेरे बड़े भाई घनश्याम दास शर्मा ने ही हम सभी भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई पूरी करवाई। वह टेलीफोन विभाग में अटेंटेड थे। अभी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। बड़े भाई अब भी उसी नहर क्वार्टर में रहते हैं। पिताजी अपने काम में व्यस्त रहते थे। उनको तो यह भी नहीं पता था कि उनका कौन सा बच्चा किस क्लास में पढ़ रहा है। मेरी मां ने ही सारी जिम्मेदारी निभाई। घर ही आर्थिक स्थिति को देखते हुए मैं भी कोई ना कोई पार्ट टाइम का जॉब करता था। फुल टाइम जॉब इसलिए नहीं किया क्योंकि मुझे एनएसडी में दाखिला लेना था।
25 पैसे में एडमीशन, 15 पैसे फीस
मेरी पूरी पढ़ाई लिखाई हिसार में ही हुई है। बीए तक हिसार में ही पढ़ाई की उसके बाद चंडीगढ़ आकर ड्रामा में एमए करने की कोशिश की। फिर उसे अधूरा छोड़कर नेशल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) आ गया। पांचवी तक हिसार के सरकारी स्कूल राजकीय प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा। मुझे याद है पहली कक्षा में मेरा एडमिशन 25 पैसे में हुआ था और हर महीने 15 पैसे फीस लगती थी। छठवीं से दसवीं तक जाट हाई स्कूल में पढ़ाई की, छठवीं से तो हमने एबीसीडी सीखनी शुरू की थी, फिर ग्यारहवीं और बारहवीं गवर्नमेंट कॉलेज हिसार से किया उसके बाद बीए भी गवर्नमेंट कॉलेज हिसार से किया। तब तक मैं रंगमंच पर नाम कमाने लगा था और हर कॉलेज के लिए मेरे पास बुलावा आता कि हमारे यहां एडमीशन ले लो। उनको लगता था कि मैं उनके यहां नाटक करूंगा तो कॉलेज का नाम होगा।
दूरदर्शन के धारावाहिकों का असर
मैं तो बचपन से ही थिएटर करना चाह रहा था। उन दिनों ‘मालगुडी डेज’, ‘तमस’, ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’, ‘हम लोग’, ‘फौजी’ जैसे सीरियल का मुझ पर काफी प्रभाव पड़ा। मुझे लगा कि थियेटर में ही काम करूंगा, क्योंकि इन सारे धारावाहिकों में थियेटर वाले ही एक्टर थे। दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा की रिपर्टरी के बाद हरियाणा में अपना थियेटर ग्रुप शुरू करने की मेरी बड़ी इच्छा थी। मेरा मानना है कि बच्चों को अगर बचपन से थिएटर सीखा दिया जाए, तो उनके व्यक्तित्व में निखार आता है। लेकिन रिपर्टरी के दौरान ही मुझे पता चला कि मै ठीक ठाक एक्टर हूं, फिल्मों में एक्टिंग करूंगा तो नाम और दाम दोनों मिलेंगे।
वनराई कॉलोनी बनी पहला ठिकाना
दिल्ली से मुंबई साल 1997 में आया तो उस समय मेरे पास 70 हजार रुपये थे। दिल्ली में दूरदर्शन के लिए साल 1996 में एक सीरियल ‘आदर्श’ किया था। इसके 11 एपिसोड में मैंने काम किया। उसी की कमाई से मैंने 70 हजार की पूंजी जोड़ी। मुंबई आते ही गोरेगांव पूर्व की वनराई कॉलोनी में किराये पर घर लिया। खूब जमकर ऑडिशन दिए, छोटे रोल मिलते थे तो मैं मना कर देता था। उन दिनों दूरदर्शन पर ‘शांति’ डेली सोप सीरियल चल रहा था। मै उसे देखता था और सोचता था कि कैसे लोग मशीन की तरह काम कर रहे हैं। डेली सोप सीरियल में सबसे अच्छा कलाकार उसे माना जाता है, जो जल्दी से अपने डायलॉग याद कर ले। एक एक्टर के तौर पर उनमें कुछ करने को नहीं होता।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी का किस्सा
उन दिनों वनराई कालोनी में राजपाल यादव, विजय राज, कुमुद मिश्रा जैसे बहुत सारे कलाकार रहते थे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी तो हमारे घर पर ही बैठे रहते थे। वनराई कॉलोनी उन दिनों स्ट्रगलर्स कॉलोनी के नाम से मशहूर थी। मनोज बाजपेयी और निर्मल पांडे पड़ोस में ही रहते थे। शाम को सभी लोग अक्सर वनराई कालोनी में मिलते और अपने-अपने संघर्ष की कहानी साझा करते। आशुतोष राणा और मनोज बाजपेयी ने ‘स्वाभिमान’ सीरियल में काम किया था, लेकिन मैंने सोच लिया था कि मुझे सीरियल में काम नहीं करना है।
सुधीर मिश्रा का ऑफर इसलिए ठुकराया
उन दिनों निर्देशक सुधीर मिश्रा दूरदर्शन के लिए एक सीरियल ‘फर्ज’ बना रहे थे, उसमे उन्होंने मुझे अच्छा रोल दिया और महीने के एक से डेढ़ लाख रुपये दिलाने का वादा भी किया। मैं भूखा रहा लेकिन सीरियल नहीं किया। सीरियल में एक एक्टर की क्रिएटिविटी खत्म हो जाती है। जरूरी नहीं कि फिल्म में बड़ा ही रोल मिले लेकिन बड़े परदे का एक सीन भी आपको हिट करा देता है। आशुतोष राणा मेरे क्लासमेट रहे हैं। उन्होंने ‘संघर्ष’, ‘दुश्मन’ जैसी कई फिल्मों में यादगार किरदार निभाए लेकिन मुझे उनका ‘गुलाम’ में काम बहुत अच्छा लगा था, भले ही उस फिल्म में उनका एक ही सीन था। गोविन्द निहलानी की फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’ में मेरा छोटा सा ही रोल था लेकिन इस रोल की वजह से मुझे कई फिल्मों में काम करने का मौका मिला।
गोविंद निहलानी ने दिया पहला ब्रेक
हिंदी फिल्मों में मुझे सबसे पहले गोविंद निहलानी की फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’ में काम करने का मौका मिला। मेरे कुछ मित्रों से पता चला कि ‘हजार चौरासी की मां’ के लिए कास्टिंग चल रही है। मैं गोविंद निहलानी के सहायक निर्देशक शिवाजी से मिला और फिल्म के लिए ऑडिशन दिया। इस तरह से मुझे पहली फिल्म में काम करने का मौका मिला। उसी फिल्म के दौरान गोविंद निहलानी ने श्याम बेनेगल से मिलवाया। श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म ‘समर’ में काम करने का मौका दिया। श्याम बेनेगल की फिल्म ‘समर’ में मेरा काम देखकर आशुतोष गोवारिकर ने ‘लगान’ और राम गोपाल वर्मा ने ‘शूल’ में काम दिया।
सोने नहीं देते थे आमिर खान
आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘लगान’ मेरे करियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म से मुझे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। इस फिल्म में आमिर खान के साथ काम करने का बहुत ही अच्छा अनुभव रहा है। सभी एक्टर्स के चेहरे पर थकान दिखे, इसलिए आमिर खान रात को सारे एक्टर्स को सोने नहीं देते थे। हमलोग सिर्फ 2 -3 घंटे ही सो पाते थे। आमिर खान खुद सबको एक कमरे में बुलाते थे और हम लोग रात भर ताश खेलते थे। आज भी हम लोग हर साल आमिर खान के घर पर मिलते हैं और ‘लगान’ से जुड़ी तमाम बातें शेयर करते हैं।
हर निर्देशक से कुछ न कुछ सीखता रहा
भाग्यशाली रहा कि सिनेमा के दिग्गज निर्देशकों के साथ काम करने का मौका मिला। हर किसी का अपना काम करने का एक तरीका है और हर तरीके ने मुझे कुछ न कुछ सिखाया ही। प्रकाश झा, श्याम बेनेगल, सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशकों की स्क्रिप्ट ही ऐसी होती हैं कि उन्हें अलग से समझाने की जरूरत नहीं पड़ती है। कुछ ऐसे निर्देशकों के साथ काम किया जहां सीन इंप्रोवाइज करके भी काम होता था। कुछ निर्देशक ऐसे भी रहे जैसा वो बोलते थे, वैसा ही काम करना पड़ता था।
अच्छी फिल्मों का चलना बहुत जरूरी
भले ही मैंने अब तक कई फिल्में कर ली हो लेकिन अभी तक का तो मेरा सबसे अच्छा किरदार फिल्म ‘छिपकली’ का है। दुनिया में कोई भी अच्छा एक्टर होगा, उसके लिए ऐसा किरदार निभाना ड्रीम रोल होता है। जिस तरह से रोल करता रहा हूं, उससे काफी अलग किरदार रहा है ‘छिपकली’ में। आजकल लोग कम बजट की फिल्मों के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं, कम बजट की अच्छे कंटेंट वाली फिल्में मरती जा रही हैं। ऐसी फिल्मों को कोई रास्ता ही नहीं मिल पा रहा है, ठीक से रिलीज के लिए थियेटर नहीं मिल पाते हैं। अगर ‘छिपकली’ जैसी एक दो फिल्में भी चल गईं तो एक नया रास्ता खुल जाएगा।
‘दादा लखमी’ के दौरान बेच दिया घर
फिल्म ‘छिपकली’ के अलावा ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’ और ‘अब तक छप्पन’ जैसी फिल्मों के किरदार मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहे। ‘दादा लखमी’ मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। इस फिल्म को बनाने के दौरान बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। चुनौतियों की कहानी इतनी लंबी है कि इस पर एक किताब लिखी जा सकती है। इसकी तैयारी और बनाने में छह साल लगे हैं। इस दौरान फिल्म कई बार बनते बनते रुक गई। निवेशकों ने हाथ खड़े कर दिए तो मैंने अपना घर बेच कर इसकी शूटिंग की। फिर भी फिल्म की शूटिंग पूरी नहीं हुई तो मैं काम करके पैसा इकट्ठा करता था फिर शूटिंग करता था।