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कांवड़ रूटों की दुकानों पर मालिकों का नाम लिखना जरूरी, कितना सही कितना गलत, क्या कहता है कानून?

किसी ने क्या खूब लिखा है कि ‘वो ताजा-दम हैं नए करामात दिखाते हुए, आवाम थकने लगी तालियां बजाते हुए’. इसका निहितार्थ भारत में लोकतंत्र स्थापित होने से पहले राजा-महाराजाओं के समय में आवाम (आम जनता) के हालात की अवधारणा को दिखाता है. आज के दौर में ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार कोई काम करे और सभी के लिए तालियां बजानी जरूरी हो, शायद यही वजह है कि कांवड़ यात्रा के दौरान कानून-व्यवस्था को कायम रखने के लिए यूपी सरकार के नेम-प्लेट नियम को लेकर देशभर में तीखी बहस छिड़ी हुई है.

संविधान और कानून की निगाह से देखा जाए तो विशेषज्ञों का मानना है कि शांति और कानून-व्यवस्था को कायम रखने के लिए सरकार ऐसे नियामक उपाय कर सकती है. जबकि इसके राजनीतिक मायने अलग निकाले जा रहे हैं, जिसमें एक धड़ा समाज को बांटने, मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाए जाने का हवाला भी दे रहा है. विपक्ष भी इस कानून की खिलाफत में मुखर है, जबकि बीजेपी शासित सूबे की सरकार का कांवड़ यात्रा के दौरान पुख्ता इंतजाम से जोड़ते हुए निवारक कदम करार दे रही है.

मुलायम सिंह की सरकार में पारित हुआ था कानून

यह भी सच है कि नेम प्लेट लगाने का नियम जिस कानून के तहत लाया गया है, वह तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार में सन-2006 में पारित किया गया था. 18 साल पहले पारित खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम के तहत राज्य सरकार ने कावड़ यात्रा के दौरान दुकानदारों को नाम समेत अन्य जानकारी स्पष्ट करने को कहा है.

देशभर में जब कांवड़ यात्रा को लेकर जारी किए गए यूपी के नए आदेश के बाद उत्तराखंड के हरिद्वार में भी पुलिस ने समान आदेश जारी कर दिए. मुजफ्फरनगर पुलिस ने इसकी शुरुआत की और कांवड़ यात्रा के दौरान रास्ते में आने वाले दुकान, रेस्टोरेंट के मालिकों को अपने नाम का बोर्ड लगाने का आदेश दिया.

‘सुरक्षा को देखते हुए सरकार निवारक नियम लागू कर सकती हैं’

सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह के मुताबिक राज्य सरकार कांवड़ यात्रा करने वालों की सुरक्षा के मद्देनजर निवारक नियम लागू कर सकती है. इसमें कोई कानूनी खामी नहीं है. यह न तो समानता के अधिकार का उल्लंघन है, क्योंकि सभी धर्म के लोगों को इसका अनुपालन करने का निर्देश राज्य सरकार द्वारा दिया गया है. अगर सिर्फ वर्ग विशेष के लिए ऐसा नियम लागू किया जाता तो यह उल्लंघन होता. उन्होंने कहा कि हालांकि इसके राजनीतिक मायने अलग हो सकते हैं, कानून लागू करने के पीछे मंशा पर सवाल जरूर उठाया जा सकता है और ऐसा किया भी जाना चाहिए. हरेक नियम-कानून पर समुचित चर्चा होनी चाहिए.

सरकार के फैसले पर क्या बोले कपिल सिब्बल?

दूसरी ओर कानूनविद् और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल आलोचना करते हुए कहते हैं कि इस तरह की राजनीति हमें विकसित भारत की ओर नहीं ले जाएगी. यह समाज को बांटने वाला है और इससे आम आदमी को कोई लेना देना नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के वकील शमशाद आलम कहते हैं कि राज्य सरकार लगातार ऐसे कदम उठा रही है जो वर्ग विशेष के पक्ष में नहीं हैं. हलाल से लेकर नेम-प्लेट नियम तक देखा जाए तो इसमें सूबे की सरकार की नीयत साफ दिख जाएगी. इससे समाज को किसी भी सूरत में सही दिशा नहीं मिल सकती.

‘पूरे देश में होनी चाहिए यह व्यवस्था’

कानून के जानकार अभिषेक राय कहते हैं कि सावन के दौरान हिन्दू धर्म में लोग मांसाहार (नॉनवेज) से परहेज करते हैं. खास तौर पर कांवड़ यात्रा पर जाने वाले अगर ऐसी जगह से सामग्री खरीदेंगे, जहां मांसाहार हो रहा है या बन रहा है तो उनकी नियम-संयम भंग होगा. ऐसे में अगर दुकानदार नेम-प्लेट लगा लेंगे तो क्या परेशानी है. मेरी राय में तो यह व्यवस्था पूरे देश में होनी चाहिए. अनुच्छेद 15 भी यही कहता है कि राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.

उन्होंने कहा कि इस निवारक कदम का जो लोग विरोध कर रहे हैं, क्या वो गारंटी लेंगे कि कांवड़ यात्रा के दौरान कोई घटना नहीं होगी. आखिरकार सुरक्षा, शांति और कानून व्यवस्था को कायम रखना सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार की जिम्मेदारी है. हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि इस कानून की आड़ में किसी भी धर्म के व्यक्ति के साथ उसके रंग, रूप या जाति-धर्म के आधार पर ज्यादती होती है तो यह समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा. चाहे वह पुलिस करे, प्रशासन करे या फिर कोई और, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि निवारणात्मक नियम लागू करना राज्य सरकार का कर्तव्य है. अनुच्छेद 18 में इस बात का जिक्र है कि सैन्य और शैक्षणिक उपाधियों को छोड़कर सभी उपाधियों का उन्मूलन किया जा सकता है.

कानूनी तौर पर कोई खामी नहीं: SC के वकील

सुप्रीम कोर्ट के वकील अनुपम मिश्रा कहते हैं कि यह नियम लागू करने में कानूनी तौर पर कोई खामी नहीं है, लेकिन राजनीतिक मायने और दुष्प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. किसी हत्या के मामले में न्यायाधीश खुद का बचाव करने वाले आरोपी को बरी कर देते हैं. जबकि इरादे से हत्या करने वाले को सजा मिली है, मेरी राय में यह मसला कुल मिलाकर नीयत का है.

उन्होंने कहा कि सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा को मद्देनजर आप नियम को देखेंगे तो खामी नजर आएगी, लेकिन भविष्य में होने वाली किसी बड़ी घटना से बचाव के मद्देनजर देखेंगे तो नेम प्लेट नियम सही लगेगा. सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता, यह भी सही है, लेकिन किसी निवारक कदम के जरिए किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता. और इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे कदमों का दुरुपयोग सर्वाधिक पुलिस द्वारा किया जाता है. अनुच्छेद 16 कहता है कि राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी.

वहीं, कानूनविद् अनुराग सिंह कहते हैं कि देश के संविधान के तहत समानता का अधिकार यह सुनिश्चित करता है कि कानून के समक्ष सभी के साथ समान व्यवहार किया जाए. किसी भी तरह से होने वाले भेदभाव को पूरी तरह से और स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया जाए, रोजगार के मामले में सभी को समान माना जाए और अस्पृश्यता तथा ऊंच नीच को समाप्त किया जाए. अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन की बात करता है.

‘सुरक्षात्मक और बचाव के लिए उठाया गया कदम है’

सिंह ने आगे कहा, आप मुझे बताइये समानता के अधिकार की परिभाषा का यूपी सरकार द्वारा लागू नियम से कहां उल्लंघन हुआ है. यह निवारक नियम सभी के लिए है. हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी और बौद्ध समेत जितने भी धर्म-पंथ के लोग देश में रहते हैं. अगर कांवड़ यात्रा के दौरान संबंधित क्षेत्र में दुकान लगाकर व्यवसाय करते हैं तो उन्हें नाम, पता समेत अन्य स्थितियों को स्पष्ट करना होगा. यह तो सुरक्षात्मक और बचाव के लिए उठाया गया कदम है, ताकि ऐसा ना हो कि अचानक कोई धमाका हो फिर उसकी आग पूरे देश में फैल जाए. अनुच्छेद 14 भी यही कहता है कि राज्य, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी व्यक्ति को भारत के राज्यक्षेत्र में कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा.

यूपीए की सरकार में बना था कानून

नेम प्लेट को लेकर यूपीए की सरकार में कानून बना था. खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 के मुताबिक, होटलों, रेस्टोरेंट, ढाबों और ठेलों समेत भी सभी भोजनालयों के मालिकों के लिए अपना नाम, फर्म का नाम और लाइसेंस नंबर लिखना अनिवार्य है. ‘जागो ग्राहक जागो’ योजना के तहत नोटिस बोर्ड पर मूल्य सूची भी लगाना जरूरी है.

विपक्षी पार्टियां कर रही हैं विरोध

दूसरी ओर कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने एकजुट होकर इस नियम का पुरजोर विरोध किया है. एक सुर में सभी ने कहा है कि पहले भी कांवड़ यात्राएं होती आई हैं, लेकिन इस तरह का नियम लाकर राज्य सरकार वर्ग विशेष को निशाना बना रही है. विपक्ष ही नहीं भाजपा के सहयोगी दल राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल यूनाइटेड और लोजपा (आर) ने राज्य सरकार के फैसले को गैर-जरूरी बताया है.

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