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उत्तराखंड

तबाही मचाने वाले ग्लेशियर क्यों टूटते हैं? उत्तराखंड हादसे के बाद बर्फ में फंसे 47 मजदूर

उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर टूटने से 47 मजदूर बर्फ में दब गए हैं. चमोली के माणा गांव में हुई इस घटना में 57 मजदूर शिकार हुए थे, लेकिन 10 को बचा लिया गया है. अन्य मजदूरों की तलाश जारी है. ITBP और गढ़वाल स्काउट की टीम यहां रेस्क्यू ऑपरेशन चला रही है. पिछले दो दिन से पहाड़ों का मौसम खराब है. उत्तराखंड के साथ हिमाचल प्रदेश के कई हिस्सों में भारी बारिश हो रही है.

उत्तराखंड में ग्लेशियर के टूटने की यह कोई पहला घटना नहीं है. विज्ञान कहता है ग्लेशियर के टूटने के कई कारण होते हैं. जानिए, वो कारण जो इनके टूटने की वजह बनते हैं.

क्यों टूटते हैं ग्लेशियर?

ग्लेशियर के टूटने की वजह को दो हिस्सों में बांटकर समझ सकते हैं. पहला, वो वजह जिनके कारण प्राकृतिक तौर पर तबाही आती है. दूसरी वो जिसके लिए इंसान जिम्मेदार हैं. प्राकृतिकतौर ग्लेशियर टूटने की वजह तेज बारिश और बर्फ के पिघलने को बताया जाता है.

वैज्ञानिक कहते हैं, जरूरत से ज्यादा बारिश होने पर बर्फ पिछलती है और उसका आकार बदलता है. यही ग्लेशियर्स के टूटने की वजह बनती है. पिछले कुछ सालों में ग्लेशियर के टूटने के मामले बढ़े हैं, इसकी एक वजह ग्लोबल वॉर्मिंग को भी बताया जाता है. बढ़ता तापमान ग्लेशियर को पिघला रहा है. इसे अस्थायी बना रहा है. नतीजा, इनके टूटने के मामले बढ़ रहे हैं.

धरती के नीचे होने वाली भूकंपीय गतिविधि भी इसके टूटने की वजह बनती है. भूकंप की वजह बनने वाली टेक्टोनिक प्लेट का मूवमेंट ग्लेशियर के संचरना को अस्थायी बना रहा है. नतीजा, ऐसे मामले सामने आ रहे हैं.

इंसानों के कौन से काम कैसे ग्लेशियर टूटने की वजह बनते हैं, अब इसे भी समझ लेते हैं. इंसानों की कई गतिविधियां ऐसी हैं जो प्राकृतिक ठंडक को घटा रही हैं. जैसे-पेड़ों का कटना. इसके अलावा ग्लेशियर के पास निर्माण और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट भी इनके टूटने की वजह बन रही है. जैसे- टनल और हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट. ग्रीन हाउस गैसें तापमान बढ़ा रही हैं और ये भी ग्लेशियर के पिघलने का कारण हैं. खनन भी ग्लेशियर को कमजोर बना रहे हैं. ग्लेशियर के पास पर्यटकों की संख्या बढ़ने से बढ़ने वाला प्रदूषण भी इसे डैमेज कर रहा है.

कैसे बनते हैं ग्लेशियर

अमेरिकी स्पेस एजेंसी NASA की रिपोर्ट कहती है, जब बर्फ गर्म पानी या गर्म हवा के सम्पर्क में आती है तो पिघलना शुरू हो जाती है. जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान भी ग्लेशियर को ऐसे ही पिघला रहा है. हालांकि, सीधेतौर पर यह बताना मुश्किल है कि इन्हें पिघलने और इनके कारण समुद्र का जल स्तर बढ़ने में कितना समय लगेगा.जब गर्मियों की गर्म हवा ग्लेशियर की सतह को पिघला देती है, तो पिघला हुआ पानी बर्फ में छेद कर देता है. यह ग्लेशियर के नीचे तक अपना रास्ता बनाता है. अंततः ग्लेशियर के आधार से निकलकर आसपास के महासागर तक पहुंचता है.

आम बर्फ से तुलना करें तो ग्लेशियर की संरचना अलग होती है. ग्लेशियर और ऐसी बर्फ की शीट तब बनती है जब सालों तक नई बर्फ जमकर दबती रहती है. जैसे-जैसे ग्लेशियर बढ़ते हैं, वे अपने वजन के दबाव में धीरे-धीरे खिसकने लगते हैं. छोटी चट्टानों और मलबे को अपने साथ जमीन पर खींचते हैं. इनके आसपास मौजूद पानी और जमीन तय करती है कि ये कैसे टूटेंगे और तबाही लाएंगे.

ग्लेशियर के पिघले पानी का ढेर आसपास के समुद्र के पानी से हल्का होता है क्योंकि इसमें नमक नहीं होता. इस प्रकार यह सतह की ओर उठता है और इस प्रक्रिया में समुद्र के गर्म पानी को ऊपर की ओर मिलाता है. फिर गर्म पानी ग्लेशियर के तल से टकराता है, जिससे ग्लेशियर और भी अधिक पिघल जाता है. इससे अक्सर ग्लेशियर के सामने के छोर पर बर्फ टूटती है और बड़े बर्फ के टुकड़ों (हिमशैलों) में टूट जाती है.

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