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नेताओं की नमाज से राजनीति के केंद्र तक..दिल्ली की संसद वाली मस्जिद का इतिहास

भारत में पिछले कुछ सालों में कई मस्जिदों को लेकर विवाद हुए हैं. भारत में कई मस्जिदें ऐसी हैं, जो भारत की आजादी के बाद से आजतक देश की विशाल विरासत की गवाह रही हैं. ऐसी ही एक मस्जिद दिल्ली में संसद भवन के पास है, जिसे पार्लियामेंट मस्जिद, जामा मस्जिद और रेड क्रॉस जैसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है. हाल ही में इस मस्जिद के अंदर कुछ सांसदों के साथ समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की बैठे हुए तस्वीर वायरल हो गई, जिसके बाद से यह मस्जिद सुर्खियों में बनी हुई है. लेकिन ये मस्जिद सिर्फ अखिलेश या आज के दौर के सांसदों तक सीमित नहीं है, राजनेताओं का इससे नाता काफी पुराना है.

यह मस्जिद लुटियंस की दिल्ली के निर्माण से लेकर भारत की आजादी की लड़ाई और उसके बाद भारत के विकास की गवाह रही है. भारत के पहले शिक्षा मंत्री और स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद अमूमन इस मस्जिद में नमाज अदा किया करते थे. साथ ही पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और एपीजे अब्दुल कलाम भी इसी मस्जिद में नमाज पढ़ने आया करते थे, खास कर जुमे की नमाज. आज भी दिल्ली के केंद्र में रहने वाले तमाम मुस्लिम सांसद व नेता नमाज के लिए इसी मस्जिद का रुख करते हैं.

ये मस्जिद कब बनी, किसने बनवाई, इस बारे में जानकारी साफ नहीं है. लेकिन माना जाता है ये मस्जिद 300 से 350 साल पुरानी है. पिछले 21 सालों से मस्जिद के इमाम मोहिबुल्लाह नदवी हैं जो अभी यूपी की रामपुर लोकसभा सीट से सपा के सांसद भी हैं और इन्हीं से मिलने सपा सांसदों का डेलिगेशन मस्जिद पहुंचा था. सांसद मोहिबुल्लाह नदवी ने टीवी9 डिजिटल से खास बातचीत में बताया, “मस्जिद का शुरुआती इतिहास अभी साफ नहीं है, लेकिन यह मस्जिद अग्रेजों द्वारा नई दिल्ली को राजधानी बनाने के बाद से अहम रही है.”

संसद के वजूद में आने के बाद से अबतक ये मस्जिद पॉलिटकल एलीट्स से जुड़ी रही है, कई मौजूदा मुस्लिम सासंदों के साथ-साथ पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसे नेता अक्सर मस्जिद में नमाज पढ़ने आते रहते हैं. संभल के पूर्व सांसद स्वर्गीय शफीकुर्रहमान बर्क का भी इस मस्जिद में आना जाना काफी था और अब उनके पोते व सपा सांसद जियाउर्रहमान बर्क भी नमाज के लिए यहीं पहुंचते हैं.

पॉलिटकल एलीट्स के लिए ये मस्जिद कितनी खास है, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद और उनकी बीवी बेगम अबीदा अहमद की कब्र भी इसी मस्जिद के कंपाउंड में है. इमाम मोहिबुल्लाह नदवी कहते हैं कि इस मस्जिद में नेताओं का आना-जाना कोई नई बात नहीं है, पहले भी यहां बड़े बड़े नेता, प्रधानमंत्री आते रहे हैं और बीजेपी से जुड़े नेता भी इस मस्जिद और यहां मौजूद मकबरे पर जाते रहे हैं.

इतिहासकारों की नज़र में मस्जिद की विरासत

हमने लेखकों और इतिहासकारों के नज़रिए से मस्जिद के अतीत को जानने की कोशिश की. इतिहासकार सोहेल हाशमी ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि इस मस्जिद का दिल्ली के हेरिटेज में उतना महत्व है, जितना लोग कभी-कभी ‘नई दिल्ली की जामा मस्जिद’ नाम की वजह से इसे मान लेते हैं. 90 के दशक के आखिर में, कुछ लोगों ने इसे ‘नई दिल्ली की जामा मस्जिद’ कहना शुरू कर दिया, लेकिन हर शहर में एक ही जामा मस्जिद होती है और वह दिल्ली में पहले से ही मौजूद है, जो पुरानी दिल्ली में है.”

उन्होंने आगे कहा, “हमें मस्जिद का मूल नाम कहीं नहीं मिलता, इसलिए हम कह सकते हैं कि रायसीना हिल के आसपास लुटियंस दिल्ली के बसने के बाद, मस्जिद के पास रेड क्रॉस सोसाइटी की स्थापना की गई थी. समय के साथ लोग इसको ‘रेड क्रॉस मस्जिद’ कहने लगे. अब, संसद के करीब होने की वजह से इसे ‘संसद मस्जिद’ के नाम से भी जाना जाता है. इसके निर्माण की सही तारीखें साफ नहीं हैं, लेकिन यह मस्जिद बहुत खास है.” बता दें, इस सैकड़ों साल पुरानी मस्जिद को सबसे पहले 1946 में कलकत्ता स्थित भारत केमिकल वर्क्स ने रेनोवेट कराया और इसके ढांचे को एक नई जिंदगी मिली थी.

“राजाओं और मुगलों ने नहीं बनवाई मस्जिद”

इसी तरह इतिहासकार एस. इरफ़ान हबीब ने और भी जानकारी देते हुए कहा, “लुटियंस दिल्ली या इंडिया गेट के पास कई मस्जिदें सदियों पुरानी हैं और इतिहास और विरासत को समेटे हुए हैं, लेकिन इतिहासकारों, ASI या लेखकों ने कभी उन पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे ऐतिहासिक हस्तियों और कहानियों से जुड़ी नहीं थीं. फिर भी, शाही मस्जिद ज़ब्ता गंज, सुनहरी बाग मस्जिद और संसद मस्जिद, सभी ने ब्रिटिश शासन, स्वतंत्रता संग्राम, स्वतंत्रता और आज तक के नए युग को देखा है.”

हबीब ने आगे कहा, “ये मस्जिदें राजाओं और मुगलों से जुड़ी नहीं थीं, लेकिन लुटियंस दिल्ली बनने से पहले, इस इलाके में कई छोटे-छोटे गांव और बस्तियां फैली हुई थीं. ज़ाहिर है कि मुस्लिम समुदाय ने इन मस्जिदों का निर्माण उस समय किया होगा, लेकिन हमारे पास इनके निर्माण की असल तारीख का कोई रिकॉर्ड नहीं है. फिर भी, ये सभी कम से कम 150 से 300 साल पुरानी हैं.”

उन्होंने अपनी बात का उदाहरण देते हुए कहा कि स्वतंत्रता सेनानी और मशहूर उर्दू शायर हसरत मोहानी को सुनहरी बाग मस्जिद में सुकून मिला. वे वहां इबादत करते थे, समय बिताते थे और यहां तक कि वहीं रहते भी थे. इसी तरह, संसद भवन के पास स्थित मस्जिद ने प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों, सांसदों और कई अन्य लोगों का स्वागत किया, जिन्होंने आजाद भारत को आकार देने में खास भूमिका निभाई. इन्हीं वजहों से मस्जिद खास हो जाती है.

2014 में केरल के कारोबारी ने कराया था रेनोवेशन

समय के साथ मस्जिद के इमारत कमजोर पड़ने लगी और छत का एक हिस्सा ढह गया. दीवारों और दरवाजों को मरम्मत की सख्त ज़रूरत थी. तब 2014 में केरल के एक व्यवसायी पद्मश्री एम. ए. यूसुफ अली की ओर से इसकी मरम्मत कराई गई और इसकी खूबसूरतों को एक बार फिर से निखारा गया.

कैसी है मस्जिद?

ये मस्जिद नई पार्लियामेंट के नॉर्थ गेट के ठीक सामने है, इसका एक आम रास्ता रेड क्रॉस की बिल्डिंग की तरफ से है, जो इसका बैकसाइड है. इस मस्जिद के एंट्री गेट से पीछे देखने पर नए और पुराने दोनों संसद भवनों को देखा जा सकता है. एंट्री गेट के एक साइड वजू खाना बना हुआ है, जिसमें महिलाओं के लिए अलग से स्पेस है. एंट्री गेट के बाद मस्जिद का मेन गेट है और अंदर से मस्जिद तीन हिस्सों में बंटी हुई है, जिसके हर हिस्सें में तीन से चार सफों की जगह है.

महिलाओं के लिए अलग जगह

मस्जिद के अंदर ही पीछे की तरफ महिलाओं की नमाज के लिए अलग कमरा बना हुआ है, जिसका एक रास्ता एंट्री गेट से भी सीधे जाता है. मस्जिद अंदर से काफी मॉर्डन डिजाइन की मालूम होती है, जो 2014 की रेनोवेशन के बाद के बदलाव को बताती है.मस्जिद के चारों ओर बाउंड्री है, यहीं पर इमाम और मुअज्जिन के रहनी की जगह भी है. मस्जिद में वॉशरूम भी बने हुए हैं और पीछे के साइट एक छोटा सा पार्क है जहां पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का मकबरा बना हुआ है. मस्जिद में एक बार में लगभग एक हजार लोग नमाज पढ़ सकते हैं. रमजान के महीने में यहां बड़ी संख्या में लोग इफ्तार के लिए पहुंचते हैं.

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