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द्वंद्व के बीच शांति की खोज

केवल ज्ञान की बातें करों। किसी व्यक्ति के बारे में दूसरे व्यक्ति से सुनी बातें मत दोहराओ। जब कोई व्यक्ति तुम्हें नकारात्मक बातें कहे, तो उसे वहीं रोक दो, उस पर वास भी मत करो। यदि कोई तुम पर कुछ आरोप लगाये, तो उस पर वास न करो। यह जान लो कि वह बस तुम्हारे बुरे कर्मो को ले रहा है और उसे छोड़ दो। यदि तुम गुरु के निकटतम में से एक हो तो संसार के सारे आरोपों को हंसते हुए ले लोगे। द्वद्व संसार का स्वभाव है और शांति आत्मा का स्वभाव है। द्वद्व के बीच शान्ति की खोज करो। द्वद्व समाप्त करने की चेष्टा द्वद्व को और ज्यादा बढ़ाती है। आत्मा की शरण में आकर विरोध के साथ रहो।
जब शान्ति से मन ऊबने लगे तो सांसारिक क्रिया-कलापों का मजा लो। और जब इनसे थक जाओ तो आत्मा की शान्ति में आ जाओ। यदि तुम गुरु के करीब हो, तो दोनों क्रिया कलाप साथ-साथ करोगे। ईश्वर व्यापक हैं। और अन्नत काल से ईश्वर सभी विरोधों को संभालते आए हैं। यदि ईश्वर सारे विरोधों को ले सकते हैं, तो निश्चित ही तुम भी ऐसा कर सकते हो। जैसे ही तुम विरोध के साथ रहना स्वीकार कर लेते हो, विरोध स्वत: समाप्त हो जाता है। शान्ति चाहने वाले लोग लड़ना नहीं चाहते और इसके विपरीत लड़ाई करने वाले शान्ति पसन्द नहीं करते। शान्ति चाहने वाले लड़ाई से बचना चाहते हैं। आवश्यक यह है कि मन को शांत करें और फिर लड़ें। गीता की यही मूल शिक्षा है। कृष्ण अजरुन को उपदेश देते हैं कि अजरुन युद्ध करो मगर हृदय को शान्त रखकर।
संसार में जैसे ही तुम एक विरोध को समाप्त करते हो तो दूसरा खड़ा हो जाता है। उदाहरण के लिए जैसे ही रूस की समस्या समाप्त हुई, बोस्निया की समस्या खड़ी हो गई। एक समस्या हल होती है, तो दूसरी शुरू हो जाती है। तुम्हें जुकाम हुआ। वह जरा ठीक हुआ नहीं कि फिर कमर में दर्द शुरू हो गया। फिर यह ठीक हो गया। और तो और, शरीर ठीक ठाक है तो मन अशान्त हो जाता है। बिना किसी इरादे के गलतफहमियां पैदा होती हैं, उलझन पैदा होती है। यह तुम्हारे ऊपर नहीं कि तुम उनका समाधान करो। तुम तो बस उन पर ध्यान न दो, बस जीवन्त रहो।

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