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BJP ही नहीं सपा भी होगी बेचैन, राहुल गांधी की सक्रियता से कैसे बदलेगी यूपी की सियासत?

लोकसभा चुनाव में मिली जीत के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने वायनाड के बजाय रायबरेली से सांसद रहने का फैसला करके अपना सियासी मैदान चुन लिया था. अब रायबरेली के बहाने उत्तर प्रदेश के सियासी पिच पर राहुल गांधी ने उतरकर बैंटिंग शुरू कर दी है. एक महीने में तीन बार यूपी का दौरा किया, जिसमें दो बार वो अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली गए तो एक बार हाथरस हादसे के पीड़ित परिजनों से मिलने पहुंचे थे. इस तरह राहुल गांधी की यूपी में बढ़ती सियासी सक्रियता सत्ताधारी बीजेपी को ही नहीं बल्कि विपक्षी दल सपा और बसपा को भी राजनीतिक रूप से बेचैन कर सकती है?

राहुल गांधी ने रायबरेली को अपनी सियासी कर्मभूमि बनाकर उत्तर प्रदेश की सियासत में साढ़े तीन दशक से वेंटीलेटर पर पड़ी कांग्रेस को संजीवनी देने में जुट गए हैं. इसकी झलक 2024 के चुनावी नतीजे आने और उसके बाद नेता प्रतिपक्ष बनने के साथ ही राहुल गांधी की हाथरस यात्रा और उसके बाद सीएम योगी आदित्यनाथ को लिखी गई चिट्ठी में देखा जा सकता है. राहुल गांधी मंगलवार को दोबारा से रायबरेली पहुंचे थे, जहां पर पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से ही नहीं बल्कि शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह के परिवार से मुलाकात करके सियासी संदेश देने की कवायद करते नजर आए हैं.

रायबरेली के बहाने राहुल गांधी उत्तर प्रदेश पर फोकस कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस लंबे समय से सूबे में अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन तलाश कर रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने कांग्रेस की उम्मीद जगा दी है. 2019 में महज एक सीट पर यूपी में सिमट जाने वाली कांग्रेस 2024 में 6 सीटें जीतने में कामयाब रही और पांच सीटों पर उसे मामूली वोटों से हार का सामना करना पड़ा है. नतीजे के बाद से कांग्रेस के लोग उत्साहित हैं और अब राहुल गांधी ने एक महीने में तीन दौरे यूपी के करके सियासी धार देना शुरू कर दिया है. चाहे नीट का मुद्दा हो या हाथरस कांड. इस बीच हाथरस कांड हुआ तो राहुल गांधी ने लोगों के बीच पहुंचने में देर नहीं लगाई और पीड़ित परिजनों से मिलकर सियासी संदेश देते नजर आए.

कांग्रेस के बिखरे वोट बैंक को जोड़ने की कोशिश

राहुल गांधी की कोशिश उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बिखरे हुए वोट बैंक को एक बार फिर से जोड़ने की है. इस दिशा में राहुल को 2024 के चुनाव में काफी हद तक सफलता मिलती दिखी है. कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक एक दौर में दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण हुआ करता था. कांग्रेस इन्हीं तीनों के सहारे यूपी में लंबे समय तक सत्ता पर कबिज रही, लेकिन नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन और सामाजिक न्याय की पॉलिटिक्स ने उसके समीकरण को बिगाड़ कर रख दिया.

साढ़े तीन दशक से कांग्रेस के लिए सत्ता का वनवास बना हुआ है, लेकिन 2024 के चुनाव परिणाम ने उसके लिए एक राह दिखा दी है. इस बार मुसलमानों का एकमुश्त वोट इंडिया गठबंधन को मिलना और संविधान वाले मुद्दे पर दलित समुदाय के झुकाव ने कांग्रेस को यूपी में फिर से खड़े होने की उम्मीद जगाई है. यूपी में 2022 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 2.33 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन दो साल बाद ही 2024 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर 6.39 फीसदी पर पहुंच गया.

कांग्रेस का सियासी बेस यूपी में बन जाने के चलते ही राहुल गांधी एक्टिव हैं और दोबारा से कांग्रेस को खड़े करने का प्लान है. राहुल की सक्रियता से सियासी दलों की बेचैनी बढ़नी लाजमी है, जिसके चलते सभी निशाने पर होंगे, तो सभी का वोट कांग्रेस के टारगेट पर होगा.

मायावती की सबसे ज्यादा बढ़ेगी टेंशन

राहुल गांधी के यूपी में एक्टिव होने से सबसे बड़ी बेचैनी बसपा की बढ़ेगी. इसकी वजह यह है कि राहुल का फोकस दलित समुदाय के वोट बैंक पर है, जिसे साधने के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं. संविधान के मुद्दे पर दलितों का एक बड़ा तबका कांग्रेस-सपा गठबंधन के पक्ष में खड़ा नजर आया है. यूपी में दलित वोट बैंक बसपा का परंपरागत वोटर माना जाता है, जो मायावती से अगर छिटकता रहा है तो वो बीजेपी में जाता रहा है, लेकिन 2024 में उसका झुकाव कांग्रेस-सपा की तरफ रहा. ऐसे में राहुल गांधी जिस तरह दलितों के मुद्दे पर मुखर हैं और संविधान की कॉपी अपने साथ हर जगह लेकर चलते हैं, उसके जरिए दलित समुदाय को अपने साथ जोड़े रखने की रणनीति है.

हाथरस हादसे में दलित समुदाय के लोगों की ज्यादातर मौत हुई है, जिनके परिवार से राहुल गांधी मुलाकात कर सियासी समीकरण साधते हुए नजर आए हैं. राहुल गांधी एक्टिव रहते हैं तो उनका फोकस दलित वोट बैंक को जोड़ने पर होगा. दलितों का झुकाव कांग्रेस के तरफ होता है तो उससे सबसे ज्यादा चिंता बसपा की बढ़ेगी. यूपी में बसपा से दलित वोट चुनाव दर चुनाव खिसकता ही जा रहा है. मायावती के लिए टेंशन का सबब दलित वोट बैंक को जोड़े रखने की है, तो कांग्रेस की कोशिश उसे अपने पाले में लाने की है. यूपी में 22 फीसदी के करीब दलित समाज का वोट है, जो सियासी तौर पर काफी अहमियत रखता है.

बीजेपी के लिए भी बनेगी चिंता का सबब

राहुल गांधी के यूपी में लगातार सक्रिय रहने से बसपा ही नहीं बीजेपी की भी टेंशन बढ़ सकती है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण समाज एक समय कांग्रेस का कोर वोट बैंक हुआ करता था, लेकिन पार्टी के कमजोर होने और राम मंदिर आंदोलन के चलते बीजेपी में पूरी तरह शिफ्ट हो गया है. ब्राह्मणों का वर्चस्व जिस तरह कांग्रेस में हुआ करता था, वैसा दबदबा बीजेपी में नहीं है. यूपी में ब्राह्मण समुदाय से सीएम कांग्रेस राज में बने हैं. नारायण दत्त तिवारी के बाद कोई दूसरा ब्राह्मण सीएम नहीं बन सका है. कांग्रेस यूपी में अगर मजबूत होती है तो ब्राह्मणों का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है, जो बीजेपी के लिए चिंता का सबब बन सकता है. राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि मुस्लिम और दलित अगर कांग्रेस के पक्ष में जाते हैं तो ब्राह्मण भी जुड़ जाएगा.

अखिलेश के लिए भी राहुल बढ़ाएंगे टेंशन

उत्तर प्रदेश में सपा जिस सियासी जमीन पर खड़ी नजर आ रही है, वो कभी कांग्रेस की हुआ करती थी. बाबरी विध्वंस के बाद मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से दूर होकर सपा के साथ चला गया था. इसके बाद से मुस्लिमों का बड़ा तबका सपा के जुड़ा हुआ है, लेकिन राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा के बाद से कांग्रेस के लिए मुस्लिमों का दिल पसीजा है. राहुल गांधी मुसलमानों के मुद्दे पर मुखर नजर आते हैं. इसी का नतीजा है कि 2024 में मुस्लिम समुदाय ने कांग्रेस नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के पक्ष में एकमुश्त वोट किया है. यूपी में सपा-कांग्रेस का गठबंधन होने से मुस्लिमों में किसी तरह का बिखराव नहीं रहा.

माना जाता है कि यूपी में कांग्रेस का जिस भी सियासी दल के साथ गठबंधन होता, मुस्लिमों का झुकाव उसके तरफ होता. इस तरह राहुल गांधी की सक्रियता से अखिलेश यादव की सियासी बेचैनी बढ़ सकती है, क्योंकि मुस्लिम वोटों के सहारे की सपा की सियासत चल रही है. मुस्लिम वोट के खिसकने से सपा के लिए चिंता का सबब बन सकती है. इसलिए माना जाता है कि अखिलेश यादव यूपी में कांग्रेस को बहुत ज्यादा राजनीतिक स्पेस नहीं देना चाहते हैं. 2024 के चुनाव में सपा ने कांग्रेस को यूपी की 80 में से 17 सीटें दी थीं, ये सीटें ऐसी थीं जहां पर 40 साल से कांग्रेस जीत नहीं सकी थी. लोकसभा चुनाव नतीजे के बाद स्थिति बदल गई है और कांग्रेस अपने सियासी आधार को बढ़ाने में जुटी है.

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