पीयूष बबेले कल इसी वक्त मैं फोन से उनसे बात कर रहा था। वही चहकती हुई आवाज “हां पीयूष, बोलो। ठीक है ना, कर लेंगे।” पीपी सर के मुख से नहीं शब्द शायद मैंने कभी नहीं सुना। अच्छी तरह याद है पहली बार 2002 में यानी आज से 21 साल पहले उन्हें सात नंबर वाले माखनलाल विश्वविद्यालय के कैंपस में देखा था। ऊंचे, तगड़े, तेजस्वी और विनम्र पुष्पेंद्र पाल सिंह किसी का भी ध्यान खुद ब खुद खींचने में समर्थ थे।
मैंने मास्टर ऑफ जर्नलिज्म में दाखिला ले लिया। हम शागिर्द बन गए और वह हमारे गुरु। तब से यह रिश्ता ऐसे ही चला आ रहा था। कभी रोज बात होती थी तो कभी बरसों तक नहीं, हुई लेकिन रिश्ते की गर्माहट में कहीं कोई फर्क नहीं।
वे उन दुर्लभ अध्यापकों में थे जिनके ज्यादातर शिष्यों को यह लगता था कि सर सबसे ज्यादा प्यार उन्हीं से करते हैं। कबीर दास जी ने कहा है:
“गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहाय दे बाहर मारे चोट। “
लेकिन पीपी सर कबीर की वाणी से ऊपर थे। वे अंतर से हाथ लगाते थे लेकिन बाहर से कोई चोट किए बिना ही घड़े को आकार देने में सक्षम थे। अपने छात्रों की कमियों को वह बखूबी पहचानते थे और उनकी योग्यताओं को भी। वह जानते थे कि कमियां एकदम से खत्म नहीं हो सकती, इसलिए म
उन्हें पीछे कर दिया जाए और जो खुबियां है, उन्हीं को आगे बढ़ाया जाए ताकि प्रतिभा निखर के सामने आए।
हमें याद है कि माखनलाल यूनिवर्सिटी से जो पहला केंपस सिलेक्शन हुआ था, वह हमारे बैच से ही शुरू हुआ। उसका एकमात्र श्रेय अगर किसी व्यक्ति को जाता है तो वह पीपी सर हैं। मुझे लगता है कि जब तक वह माखनलाल में रहे, तब तक कैंपस की यह परंपरा बदस्तूर जारी रही। बड़े-बड़े चैनलों अखबारों और वेबसाइट में एग्जीक्यूटिव एडिटर और बड़े ओहदों पर आज उनके शिष्य बैठे हुए हैं। मुझे पता है उनमें से कई आज भदभदा श्मशान घाट पर पीपी सर के अंतिम संस्कार में रोते हुए शामिल हुए होंगे।
उनका दायरा सिर्फ छात्रों तक सीमित हो ऐसी बात नहीं है। नेता, अभिनेता,ब्यूरोक्रेट, शिक्षाविद, सामाजिक कार्यकर्ता, एनजीओ, एक्टिविस्ट कला क्षेत्र के लोग और ना जाने किन-किन विधाओं के लोग उनके पास ऐसे चले आते थे, जैसे फूल के ऊपर तितलियां।
वे इस समय एक किस्म के प्रशासनिक सह राजनीतिक काम में व्यस्त थे। अगर इमानदारी से कहा जाए तो वह सच में 18 घंटे काम करते थे और हमेशा मुस्कुराते हुए। सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनकी इस तरह की मांग हो गई थी कि वह जहां जाना नहीं भी चाहते थे, वहां भी आयोजक का लिहाज कर के चले जाते थे। भले ही इसके एवज में उन्हें रात में कुछ और घंटे काम करना पड़े।
अगर डॉक्टरों की भाषा में कहें तो वह वर्कोहेलिक हो गए थे। काम करना ही उनका आराम था। काम करना ही उनका शौक था। काम करना ही उनकी मेहनत। वे हर तरह की सत्ता के साथ सामंजस्य बैठाने लगे थे, लेकिन उनकी आत्मा आज भी सेकुलर थी और स्वभाव समाजवादी।
मुझे तो कभी इस बात की कल्पना ही नहीं थी कि वह समय भी आएगा जब पीपी सर हमारे बीच नहीं होंगे।
उनका जाना किसी मशाल का बुझ जाना नहीं है? बल्कि उनका जाना किसी पावर हाउस का चला जाना है। वे दीपक नहीं थे, भटके हुए जहाजों को रास्ता दिखाने वाले लाइटहाउस थे।
हम कहीं कुछ लिख पढ़ पाते हैं तो उसके पीछे सर का कितना बड़ा योगदान है, उसे व्यक्त करने के लिए शब्द और जुबान नाकाफी है। मुझे उनके निधन से ज्यादा इस बात की पीड़ा होती है कि उनके माता-पिता ने जब अपने पुत्र का शव देखा होगा तो उनके ऊपर क्या गुजरी होगी। शायद इसकी तुलना श्रवण कुमार के मृत्यु के बाद उनके माता-पिता की दशा से की जा सकती है।
यह लिखते समय मेरी आंखें डबडबा रही हैं और स्क्रीन पर लिखे शब्द धुंधले दिखाई देते हैं। और फिलहाल तो मुझे बहुत कुछ धुंधला दिखाई दे रहा है। वह शून्य जो पीपी सर के जाने से पैदा होगा, वह कभी नहीं भरा जाएगा।
लेकिन इतना तो कहना ही पड़ेगा वे जब तक जिए शान से जिये। दूसरों के लिए जिए। और इस तरह जिए जैसे इंसान को जीना चाहिए। उनका जीवन जीने और मरने दोनों की कलाओं में पारंगत सिद्ध हुआ। ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके शिष्यों ने उनसे जो सीखा है, उसे हम सब अपने जीवन में अपनाएं और अपरिचितों की मदद करने की वह आदत पैदा करें जो पीपी सर को सहज सिद्ध थी।
जिंदगी की लौ ऊंची कर चलो।
सर अंतिम प्रणाम।
– पीयूष बबेले