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उत्तरप्रदेश में बदली सियासी हवा

लखनऊ । उत्तरप्रदेश की सियासी हवा बदली-बदली नजर आ रही है। यूपी का चुनाव जैसे-जैसे अंजाम की ओर बढ़ रहा है, भाजपा की धड़कनें भी तेज होती जा रही हैं। यूपी में भाजपा अब सत्ता के साथ साख बचाने की कवायद में जुट गई है। हालत यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र गोरखपुर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में भी हवा विपरीत दिशा में बह रही है। अब तक के पांच चरणों के मतदान का रुझान देखने के बाद भाजपा नेताओं के पसीने सारी कहानी कह रहे हैं। 10 मार्च को नतीजे आने के वक्त ऊंट किस करवट बैठेगा, पता नहीं, मगर अभी तो लड़ाई दो दलीय हो गई है। एक तरफ भाजपा है, तो दूसरी तरफ सपा।
बनारस में फंस गई हैं सीटें
सात चरणों में हो रहे यूपी विधानसभा चुनाव के छठे चरण का मतदान 3 मार्च को होना है। इसके साथ ही पूरा चुनाव पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी और उससे सटे आठ जिलों में ही सीमित हो जाएगा। वाराणसी समेत आसपास के नौ जिलों में अंतिम चरण का चुनाव सात मार्च को होगा। वाराणसी में मतदान से ठीक पहले पीएम मोदी चार मार्च को वाराणसी आएंगे। इस दौरान वह करीब छह किलोमीटर लंबा रोड शो करेंगे।
क्या है यहां का समीकरण
वाराणसी जिले में आठ विधानसभा सीटें हैं। पिछले चुनाव में भाजपा गठबंधन ने सभी आठ सीटों पर जीत हासिल की थी। छह सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी और एक-एक सीट पर ओमप्रकाश की सुभासपा और अनुप्रिया पटेल के अपना दल को जीत मिली थी। इस बार सुभासपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है। अनुप्रिया की मां कृष्णा पटेल भी सपा के साथ आ गई हैं। ऐसे में सपा-सुभासपा और कृष्णा पटेल वाले अपना दल गठबंधन ने बनारस और उसके आसपास की सीटों पर भाजपा को कड़ी चुनौती दे दी है।
सारी कवायद 202 के लिए
यूपी में 300 नहीं बल्कि 202 के लिए सारी कवायद चल रही है। यही जादुई संख्या है। अंतिम दो चरण में प्रतिद्वंद्वी किसी तरह आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। मेडिकल कॉलेज, दूसरे नंबर की इकोनॉमी, एक्सप्रेस वे जैसे विकास के मुद्दों के साथ पाकिस्तान को भी भाजपा ने मुद्दा बनाया है। लड़ाई बालाकोट के सर्जिकल स्ट्राइक से लड़ी जा रही है। जब चुनाव का शोर शुरू हुआ था तब राम मंदिर एक बड़ा मुद्दा बना। आज सांड और गुल्लू के चक्कर में ये मुद्दा भी गौण है।
ओबीसी नेताओं को भाजपा ने गंवाया
इस चुनाव के बारे में लगातार कहा जा रहा है कि भाजपा ने पिछड़े वर्ग के नेताओं को खो दिया है और धार्मिक आधार पर मतदाताओं को ध्रुवीकृत कर पाने में अभी तक विफल रही है, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता अपने-अपने मूल पहचानों की खोल में वापस मुड़ चुके हैं। यह एक सच्चाई है कि धार्मिक ध्रुवीकरण मुस्लिम मतदाताओं को अलग-थलग कर भाजपा को हिंदुत्व की छत्रछाया तले जातीय विभाजनों को खत्म करने में मदद पहुंचाता है। अब जबकि यह रणनीति विफल हो गई है, तो भाजपा उस पैमाने पर प्रचंड बहुमत की कमान नहीं हासिल कर सकती है जैसा कि इसे 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में हासिल हुआ था।
पूर्वांचल में पारंपरिक मतदाता नाराज
भाजपा ने संभवत: उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में अपने पारंपरिक मतदाताओं, भूमिहारों को भी नाराज कर दिया है, जहां 7 मार्च को अंतिम चरण में चुनाव होने हैं। इस जाति के सदस्य पारंपरिक तौर पर भाजपा के साथ खड़े रहे हैं, लेकिन अब वे नाराज चल रहे हैं, खासकर जबसे पार्टी ने उनके समुदाय के उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारा है। कहा जा रहा है कि वे अब समाजवादी पार्टी के पक्ष में लामबंद हो रहे हैं और भाजपा डैमेज कंट्रोल वाली मुद्रा में आ गई है। इसी प्रकार, दलित समुदाय में पासी या पासवान हैं जो संख्यात्मक ताकत के लिहाज से मध्य उत्तर प्रदेश में बिखरे हुए लेकिन पूर्वांचल में इनकी उपस्थिति संकेंद्रित है, का भी समाजवादी पार्टी की तरह झुकाव बढ़ रहा है।

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