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मध्यप्रदेश

धार की बाघिन पाप नहीं धोती, कपड़ों पर चढ़ाती है कड़क रंग, बाघिन नदी से बाघ की बहार

धार: रंगरेजन है वो नदी जो कपड़ा उस नदी की लहरों में आता है. रंग निखर जाता है. पक्का हो जाता है. आपने नदियों के पाप धोने की कहानियां सुनी होंगी, लेकिन यह नदी रंग देती है. उसके पानी की छुअन से रंग निखर जाता हैं. कपड़े मुस्कुराते हैं और रंग खिल जाते हैं. इस नदी का नाम है बाघिन और जो बाघ प्रिंट देश दुनिया में अपने चटख रंगों के साथ हाथों हाथ लिया जा रहा है. उस बाघ के बहार हो जाने की एक वजह ये नदी बाघिन भी है.

बाघिन नदी जो कपड़ों पर रंग चढ़ाती है, उसके रंग लौटाती है

बाघ प्रिंट की खासियत उसकी लंबी प्रॉसेस है जो पूरी तरह आर्गेनिक होती है. लाल फिटकरी से लेकर लोहे की जंग से भी रंग उतारे जाते हैं. बाघ गांव मध्य प्रदेश के धार जिले का एक छोटा सा गांव है. दुनिया के नक्शे पर अब ये बाघिन नदी और बाघ प्रिंट की वजह से दिखाई दिया है. बाघ बन नहीं सकता अगर उसकी पूरी प्रोसेसिंग में बाघिन नदी के पानी का इस्तेमाल न किया जाए.

राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त बाघ शिल्पकार मोहम्मद बिलाल खत्री अपने परिवार के तीसरी पीढ़ी के सदस्य हैं जो बाघ के काम में लगे हैं. वे बताते हैं कि “बाघिन नदी सदियों से बहती है. हम लोग बाघिन के पानी से ही कपड़े की वाशिंग करते हैं. असल में इस नदी के पानी में कैल्शियम और जिंक की मात्रा भरपूर होती है. कलर का इफेक्ट आ जाता है. यानी पानी में आते ही रंग खिल जाते हैं.” वे आगे बताते हैं कि “मैं यूएन के मिशन के साथ ब्लॉक प्रिंटिंग तकनीकी को दुनिया में पहुंचाने गया था. वहां मुझे बताया गया कि बाघिन नदी का पानी सबसे स्वच्छ

बाघ के रंग बनाने के लिए प्राकृतिक चीजों का होता है इस्तेमाल

बाघ के जो रंग आप पहनते हैं और खिलते हैं. इन रंगों के बनने की कहानी में जो किरदार शामिल होते हैं वो जानकर आप हैरान रह जाएंगे. बिलाल बताते हैं “बाघ के ये खास रंग वाकई खास होते हैं, क्योंकि ये शत प्रतिशत ऑर्गेनिक होते हैं. लाल रंग फिटकरी से बनता है. लोहे की जंग का इस्तेमाल काले रंग बानने में होता है.

हरड़ से पीला रंग बनाते हैं. इमली के बीज का पाउडर और धावड़ी के फूल का इस्तेमाल रंग बनाने किया जाता है. धावड़ी के फूलों में कपड़े को उबालना बेहद जरुरी है, क्योंकि उससे कपड़े में चमक आती है. इसके अलावा मेडररुट जो कि एक जड़ है, उसमें उबालते हैं. फिर फिटकरी लगाई जाती है, तो वो उस हिस्से को मरून कर देती है. बकरी की मेंगनी का भी इस्तेमाल होता है.

जानते हैं बाघ प्रिटिंग बनने की पूरी प्रक्रिया

बिलाल खत्री प्रिंटिंग की पूरी प्रक्रिया बताते हैं. वे बताते हैं कि “सबसे पहले कपड़ा खरीदने के बाद उसकी कटिंग करते हैं. फिर उसे बाघिन नदी के पानी की एक हौद में गला दिया जाता है. उसके बाद अगले दिन कुटाई करने के बाद बकरी की मेंगनी, अरंडी का तेल, सनचोरा (एक तरह का नमक) को मिक्स करते हैं. फिर इनको हौद में डालकर मिलाते हैं. फिर ऊपर से कपड़ा डालते हैं और उसको पैरों से दबाते हैं. इसके बाद उसे बाहर निकालकर जमीन पर रखते हैं ताकि कपड़े के रेशे में से स्टार्च निकल जाए.”

रंग के लिए फिटकरी और लोहे की जंग का होता है इस्तेमाल

खत्री बताते हैं कि “इसके बाद अगले दिन इस कपड़े को धूप में सुखाते हैं. फिर वापस लाते हैं. फिर उसी पेस्ट में पैरों से उसे गूंथते हैं. कपड़े को कूटते हैं. फिर धूप में सुखाते हैं. ऐसा 3 बार करते हैं. फिर बाघिन नदी के साफ पानी में से इसे निकालते हैं. फिर उसके बाद इस कपड़े को हरड़ के पेस्ट में डुबोकर इसे निकालते हैं. फिर एक बार इसे सुखाया जाता है. इसके बाद प्रिंटिंग का काम शुरु होता है. जिसमें लाल रंग के लिए फिटकरी और काले रंग के लिए लोहे की जंग का इस्तेमाल होता है.

प्रिंटिंग के माध्यम बनाने के लिए इमली के बीज की लेई बनाते हैं. प्रिंटिंग लकड़ी के सांचों से की जाती है. प्रिंटिंग के बाद इसे धूप में सुखाया जाता है. फिर इसे 8-10 दिन के लिए वर्कशॉप के अंदर रख दिया जाता है. बाघिन के बहते हुए पानी में इसे 10 दिन बाद धोते हैं. पानी का बहाव जिस तरफ है उसकी रिवर्स दिशा में कपड़े को चलाते हैं. ताकि उसके अंदर मिनरल्स, फिटकरी, रस्ट निकल जाए. फिर एक बार इसे धूप में सुखा देते हैं.”

तपाई प्रॉसेस से आती है कपड़े में प्राकृतिक सफेदी

धुलाई और सुखाई के बाद भट्टी की प्रॉसेस होती है. इसमें कपड़े को धावड़ी के फूल और मेडररुट में कम तापमान से अधिक तापमान में उबालना पड़ता है. जहां फिटकरी लगाई थी वहां डार्क मेहरून और जहां जंग लगी थी वहां काला रंग अगर आ गया, तो वापस इसे निकालकर बाघिन नदी में धोकर इसे नदी के पास में जो पत्थर है वहां सुखा देंगे.

इसके बाद कपड़े को सूखने नहीं देते. बार-बार पानी डालते हैं. इस प्रॉसेस को तपाई प्रॉसेस कहते हैं. इससे कपड़े में नेचुरल सफेदी आ जाती है.” बिलाल बताते हैं “इसके सांचे भी खास होते हैं. इससे बाघ की गुफाएं, प्राचीन इमारतें, ताजमहल में की नक्काशी, लाल किले की नक्काशी को लकड़ी के सांचे में उकेरा गया है.”

पहले बाघिन नदी में बने थे नेचुरल हौद

बिलाल बताते हैं कि “उनके दादा इस्माईल सुलेमान खत्री के जमाने में नदी के भीतर ही नेचुरल हौद बने हुए थे. उसी में ही कपड़े को डालकर मेरे दादा काम करते थे, लेकिन अब वो हौद मिट गए हैं. रेत में दिखाई भी नहीं देते हैं.”

सिंध से मारवाड़ और फिर मनावर तक का सफर

बाघ की इस कहानी में खत्री समाज की खास भूमिका है. पाकिस्तान के सिंध प्रांत से राजस्थान के मारवाड़ आए खत्री समाज के ये लोग पहले राजा- महाराजाओं के जाजम बनाया करते थे. फिर राजस्थान के बाद ये मध्य प्रदेश के मनावर में बाघिन नदी के किनारे बस गए. बिलाल बताते हैं, “1962 में मेरे पूर्वज यहां आए थे, फिर यहीं रह गए. मेरे दादा इस्माइल सुलेमान खत्री मेरे पिता मोहम्मद युसूफ खत्री इन्होंने ही एक तरह से बाघ को यहां तक पहुंचाया. मेरे पिता ने 2500 लोगों को ये काम सिखाया.”

पहली बार बाघ का लहंगा उस दुल्हन ने पहना

बिलाल ने जो अपने पूर्वजों से सुना है. वे बताते हैं कि जब यहां आए थे, तो मनावर में पूरी आदिवासी कम्यूनिटी है. मेरे दादा और मेरे पिता ने उनके लिए ही कपड़े तैयार किए. शुरुआत में आदिवासी समाज में जो दुल्हन होती थी उसके कपड़े, उसका लहंगा, लूघड़ा बाघ प्रिंट से तैयार होता था. फिर धीरे धीरे ये ऐसा बढ़ा कि आज पूरी दुनिया में बाघ की पहचान हो गई. खुद बिलाल बाघ की बदौलत दुनिया के 5 देशों का दौरा कर चुके हैं. उनके पिता 24 देशों में भारत के इस बाघ प्रिंट को लेकर पहुंचे हैं.

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