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फिल्मों में अब बरसात क्यों नहीं होती? सिल्वर स्क्रीन पर पड़ा सूखा, कहां खो गए रिमझिम और रोमांस के तराने?

मानसून के दौरान मुंबई में आज भी मूसलाधार बारिश होती है, लेकिन अब मंजिल फिल्म में अमिताभ बच्चन और मौसमी चटर्जी पर फिल्माए गए गाने… रिमझिम गिरे सावन… सुलग-सुलग जाए मन… जैसा सीन नजर नहीं आता. ना ही श्री420 जैसा वह दृश्य दिखता है, जिसमें राज कपूर और नरगिस एक छतरी के नीचे गाते हैं- प्यार हुआ इकरार हुआ… प्यार से फिर क्यूं डरता है दिल. फिल्मों में बरसात के दृश्यों के ये कुछ आईकॉनिक सिंबल हैं. लेकिन अब फिल्मों में बरसात के नजारे बदल गए हैं. बरसात का उपयोग भी बदल गया है. कभी सिनेमा में बरसात के बहाने सारे मौसम गुलजार होते थे. जीवन के सारे रंग और उत्सव नजर आते थे. लेकिन अब फिल्मों में बारिश नहीं होती, अगर होती भी है तो इसके बैकग्राउंड में अपराध कथा दिखाई जाती है.

देखिए परिवेश कैसे बदल गया. रात का अंधेरा, तेज बारिश, ओवरकोट में ढका हांफता शख्स, चेहरे पर खून के छींटे, हाथ में चाकू या पिस्तौल, पुलिस-क्रिमिनल की आंख मिचौली… मौजूदा दौर की फिल्मों में बरसाती मौसम के यही नजारे आम हैं. आखिर ऐसा क्यों हुआ? गुजरे जमाने की फिल्मों में बारिश के दृश्य रूमानी अहसास जगाने के लिए रखे जाते थे और इस बहाने खेत, खलिहान, किसान और खुशहाली का चित्रण होता था लेकिन अब बरसात के सीन खूनी अपराध दिखाने के लिए रखे जाते हैं. आखिर सिल्वर स्क्रीन पर सूखा-सा क्यों आया?

बरसात, नदी, झरने और मोहब्बत

राज कपूर की फिल्मों में बारिश के सीन सिनेमा की दुनिया के लिए अपना हेरिटेज महत्व रखते हैं. उन्होंने बरसात नाम से फिल्म ही बना दी. बारिश की बूंदों, नदी और झरनों से उनकी मोहब्बत इतनी ज्यादा रही कि आगे की तमाम फिल्मों में इसे बनाए रखा. उनकी फिल्मों में यह सौंदर्य का हिस्सा रहा है. वहीं बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन को याद कीजिए. आसमान में घिरते काले बादल देखते ही पूरा गांव झूम उठता है. किसानों में उम्मीद जगाती है. बारिश की बूंदों में भीगते हुए किसान बलराज साहनी और निरूपा रॉय के साथ सामूहिक राग छेड़ते हैं- हरियाला सावन ढोल बजाता आया…

हालांकि कुछ वैसा ही नजारा सालों बाद आमिर खान की लगान में भी जरूर दिखा- गौरी और भुवन आसमान में काले बादल देख कर गाते हैं- काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसा जा… लेकिन यही आमिर खान जब पीपली लाइव लेकर आए तो वहां कर्ज और सूखे परेशान किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं. नत्था कब मरेगा… बड़ा प्रश्न है. नत्था के बहाने पूरे सिस्टम पर सवाल है. इसी तरह से गुरु में अभिषेक बच्चन के साथ ऐश्वर्या राय भी गाती दिखीं- बरसो रे मेघा मेघा… लेकिन पिछले कई सालों से सिल्वर स्क्रीन से बरसात मानो गायब है. आखिर क्यों?

सन् 1955 में आई श्री 420 फिल्म में बरसात का सीन सत्तर साल बाद भी लोगों को लुभाता है. राज कपूर और नरगिस की यह तस्वीर बरसात का बेमिसाल सिंबल बन चुकी है. वह सिंबल सालों से बरकरार है. जब भी हम सिनेमा में बरसात की बात करते हैं तो कई तस्वीरें और गाने उभर कर सामने आते हैं. तमाम फिल्मों में तमाम तरीके से बरसात के सीन और गीतों को फिल्माया गया है. देवानंद की फिल्म काला बाजार के गीत को याद कीजिए- रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात…

बारिश मतलब खुशहाली की उम्मीद

यों देखें तो आज सिनेमा में बरसात ही खत्म नहीं हुई बल्कि तमाम दूसरे मौसम भी खत्म हो गए. हर रंग समाप्त हो चुके हैं. उत्सव और त्योहार भी गायब हो चुके हैं. मिलन फिल्म का गीत याद कीजिए– सावन का महीना पवन करे सोर… सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया वह गीत और सीन आज भी संवेदना और प्रेरणा जगाते हैं. लेकिन ऐसा लगता है आज हमारे सिनेमा वाले मौसम, प्रकृति और इसके रंगों और उमंगों की अहमियत भूल गए हैं.

आज श्रद्धा कपूर को आर्टिफिशियल बारिश में भीगते, गाते तो दिखाया जाता है लेकिन वह अभिनेत्री उस विरासत को आगे बढ़ाती नहीं दिखती, जिसके लिए फिल्मों में बरसात के सीन रचे गए. फिल्मों में बरसात के सीन संस्कृति के वाहक साबित हुए हैं. लेकिन अब तो बारिश को लेकर नजरिया ही बदल गया. बारिश कभी किसानों की उम्मीद हुआ करती थी. बारिश कभी प्रेमी-प्रेमिकाओं में जीवन का आनंद उठाने का उत्सव लेकर आती थी. राज कपूर छलिया में गाते है- डम डम डिगा डिगा मौसम भिगा भिंगा, बिन पिये में तो मैं तो गिरा...

वास्तव में अब फिल्मों में मानसून, बरसात के गानों की कमी की वजह बदलता मौसम ही है. आज के फिल्मकारों में विरासत और संस्कृति बोध की कमी आई है, इसमें कोई दो राय नहीं. ना वो कहानी रही, ना वो परिस्थिति रही, लिहाजा फिल्मकार परिवेश और प्रस्तुति बदलने को मजबूर हैं. एक बातचीत में जावेद अख्तर कहते हैं- आज अगर फिल्मों का नाम जिंदा जला दूंगा रखा जाएगा तो उसमें गाने कैसे होंगे? मौजूदा हालात पर नजर डालिए. आज जरा-सी बारिश में शहरों की कॉलोनियों में जो हाल हो जाता है, उस बीच बरसात कोई और अहसास जगाए तो भला कैसे.

फिल्मों में मौसम बेघर होने लगे हैं

आज पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जागरुकता के नारे जरूर हैं लेकिन उसके प्रति कैसी उदासीनता भी है, इसे विस्तार से बताने की जरूरत नहीं.यही वजह है कि फिल्मों में अब मौसम बेघर होने लगे हैं. प्रसिद्ध फिल्ममेकर नील माधव पांडा ने कुछ साल पहले एक फिल्म बनाई थी- कड़वी हवा. यह फिल्म नहीं बल्कि पर्यावरण और आबो हवा को लेकर अलार्म थी. परिवेश भले ही बुंदेलखंड का था लेकिन उसका कैनवस पूरा देश था. कहीं सूखा तो कहीं सुनामी. इस प्रकार फिल्मों में अब प्रकृति नया रूपक गढ़ रही है.

इस फिल्म में गुलजार का लिखा गीत था- मौसम बेघर होने लगे हैं/ जंगल, पेड़, पहाड़, समंदर, इंसां सब कुछ काट रहा है/ छील-छील के खाल ज़मीं की टुकड़ा-टुकड़ा बांट रहा है/ सारे बंजर होने लगे है/ मौसम बेघर होने लगे हैं…

इस हाल में फिल्मों में बरसात के सीन और, रोमांस-रिमझिम के तराने भला कैसे देखने को मिल सकते हैं

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