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आवाम का शायर जां निसार अख्तर…

  • डॉ रजनीश कुमार झा

आज की पीढ़ी जावेद अख्तर, फरहान अख्तर, जोया अख्तर को तो जानती है..पर बॉलीवुड में जहां से इस परिवार का आगाज हुआ था…उसके मुखिया का नाम शायद ही ये पीढ़़ी जानती होगी , जी हां हम बात कर रहे हैं जानिसार अख्तर की..जो जावेद अख्तर साहब के पिता और फरहान अख्तर ,जोया अख्तर के दादा थे..जां निसार अख्तर…जिनका भारतीय साहित्य में काफी बड़ा नाम है…एक मशहूर शायर और नगमानिगार…जां निसार अख्तर ने अपनी बेहतरीन गजलों से खूब नाम कमाया था. इतना ही नहीं वह शानदार गीतकार भी थे. वो एक ऐसे शायर थे जिन्होंने हमेशा याद की जाने वाली गज़ले और फिल्मी गाने लिखें हैं…उनकी गज़लों और गीत को आज भी लोग अपने ज़हन और दिल में ताज़ा रखते हैं..इसकी एक वजह ये भी है कि जानिसार अख्तर की शायरी में बनावटी कुछ नहीं था..जां निसार अख्तर साहब ने ढेर सारे अच्छे गाने लिखे जिन्हें आज भी सदाबहार कहा जाता है हिंदी सिनेमा के इस दिग्गज गजलकार गीतकार ने करीब 4 दशक तक काम किया…जां निसार अख्तर साहब का एमपी से नाता था…वे ग्वालियर के रहने वाले थे. .जां निसार अख्तर ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम. ए. किया था. वे देश के शायद सबसे पहले उर्दू के गोल्ड मेडलिस्ट थे। देश विभाजन के पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के प्रोफेसर रहे और फिर सन 1956 तक भोपाल के हमीदिया कॉलेज में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद पर रहे..जां निसार साहब शायरी के साथ नौकरी किया करते थे..फिल्मों के लिए लिखने की इच्छा थी तो वह अपनी नौकरी छोड़ मुंबई आ गए..  

एक शायर के तौर पर पूरे भारत में उनकी पहचान हो गई थी। लेकिन मुंबई में अपने लेखक दोस्तों के साथ उन्होंने फिल्मों के लिए गाने लिखने के लिए को काफी संघर्ष किया, जिसके बाद उन्होंने सबसे पहले फिल्म यास्मिन के लिए गाने लिखने का मौका मिला. इसके बाद जां निसार अख्तर ने हिंदी सिनेमा की कई फिल्मों में शानदार गाने लिखे…फिल्मी गानों के लिए जां निसार अख्तर साहब को काफी इंतजार तो करना पड़ा..लेकिन जब लिखा तो क्या लिखा…शंकर हुसैन का ये गाना देखिए

आप यूं फासलों से गुजरते रहे

दिल से कदमों की आवाज़ आती रही

आहटों से अंधेरे चमकते रहे

रात आती रही रात जाती रही

इसी तरह का एक गीत रजिया सुल्तान में था

आई ज़ंजीर की झंकार

ख़ुदा ख़ैर करे

दिल हुआ किसका गिरफ्तार

खुदा खैर करे

जाने ये कौन मेरी रुह को छूकर गुजरा

एक कयामत हुई बेदार

खुदा खैर करे

उनके तमाम फिल्मी गीत आपके दिल को छू लेता है….और इसकी एक वजह भी थी…कहते हैं जानिसार अख्तर ने अपने बेटे जावेद अख्तर से कहा था कि – मुश्किल लिखना आसान है लेकिन आसान लिखना बहुत मुश्किल है।और यही मुश्किल काम जानिसार अख्तर ताउम्र करते रहे..मसलन इसी शायरी को ही देख लीजिए-

 

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है

तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है

जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार

वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है

ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो

बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है

जां निसार अख्तर के बारे में प्रसिद्ध शायर निदा फाजली ने एक जवान की मौत नाम की किताब में काफी शिद्दत से लिखा है। फाजली ने इसमें अख्तर के जीवन पर गहराई से प्रकाश डाला है। फाजली ने अख्तर के शायराना अंदाज को भांपते हुए लिखा है कि जां निसार अख्तर ने शायरी को ख्वाबों और ख्यालों की फंतासियों से अलग करते हुए यथार्थ की धरती पर ला खड़ा किया। और ये सच भी है..उनका एक और नज्म देखिए

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को

वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था

 

निदा फाजली लिखते हैं कि जां निसार अख्तर उनके दोस्त ही नहीं थे बल्कि जरूरत से ज्यादा जल्द से शेर लिखने वाले शायर भी थे। साहिर लुधियानवी एक लाइन को सोचने में जितना समय लगाते थे उतने समय में जां निसार अख्तर 25 लाइनें लिख देते थे। जां निसार अख्तर के जज्बे की तारीफ करते हुए निदा फाजली लिखते हैं कि वह अपने अंत समय तक जवान बने रहे। वह लिखते हैं कि बुढ़ापे में जवानी का यह जोश उर्दू इतिहास में एक चमत्कार है।बीसवीं सदी के शायरों में जां निसार अख़्तर की शायरी का मयार काफी बड़ा है। वो मुंंबई तो चले गए पर अपना वो गांव नहीं भूल पाए…यही वजह है कि उन्होंने एक जगह लिखा है कि-

आए क्या- क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर

उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो

चलते चलते रुक जाता हूँ सारी की दूकानों पर

 

जां निसार अख्तर ने हिंदी सिनेमा के कई बड़े संगीतकारों के साथ काम किया. अपने चार दशक के करियर में जां निसार अख्तर ने सी. रामचंद्र, ओपी नैयर, एन दत्ता और खय्याम सहित कई शानदार संगीतकारों के साथ काम किया थापूरे करियर में उन्होंने करीब 151 गाने लिखे थे. उन्होंने 1955 फिल्म यास्मिन, 1956 में सीआईडी ,1956 में ही नया अंदाज और 1974 में प्रेम पर्वत सहित कई फिल्मों के लिए गाने लिखे थे…जां निसार अख्तर साहब ने उर्दू और हिंदी साहित्य में अपनी अमिट छाप छोड़ी..यही कारण था कि आजादी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें पिछले तीन सौ सालों की हिन्दुस्तानी शायरी को एक जगह पर इकट्ठा करने का काम दिया. बाद में इंदिरा गांधी ने इसे ‘हिंदुस्तान हमारा’ के नाम से रिलीज़ किया जां निसार की परिवार की बात करें तो साफ़िया अख्तर और जानिसार अख्तर का निकाह 1943 में हुआ था. साफ़िया मशहूर शायर मजाज़ की बहन थी. बेहद नफीस, पढ़ी लिखी-औरत जिन्होंने जांनिसार के लिए काफ़ी दुःख उठाये पर कभी कहा नहीं.जानिसार भोपाल की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर मुंबई चले आये थे.साफ़िया बच्चों को भी संभालतीं और नौकरी भी करतीं. जांनिसार का मुंबई का ख़र्च भी वे ही उठाती थीं. दोनों का रिश्ता तकरीबन नौ साल चला. साफ़िया कैंसर से मर गईं. उन नौ सालों में दोनों लगभग एक दूसरे से दूर ही रहे. साफ़िया जांनिसार को कामरेड कहकर बुलाती थी. साफ़िया के जांनिसार को लिखे ख़तों से मालूम होता है कि उन्हें जांनिसार से कितनी मुहब्बत थी. जावेद और जां निसार के रिश्तों में हमेशा तल्खी रही…जावेद की जांनिसार से बग़ावत इसलिए थी कि जांनिसार ने उनकी मां और उनका और सलमान अख्तर का ख्याल नहीं रखा. साफ़िया बेवक्त ही इस दुनिया से रुखसत हो गयी थीं, जावेद और सलमान कभी अपनी खाला, कभी नानी के घर पर अजनबियों की तरह ही रहे.जब जावेद अख्तर मुंबई आये तो महज़ पांच या छ दिन ही जांनिसार अख्तर के घर पर रहे. सौतेली मां से नहीं बनी. अपनी ग़ुरबत , रिश्तेदारों के ताने, मां की मौत इन सबके लिए उन्होंने जांनिसार को ही मुजरिम माना. तभी तो जावेद एक शेर में लिखते है:

तल्खियां क्यूं न हो अशआर में,

हम पर जो गुजरी हमें है याद सब

खैर जांनिसार अख्तर की जिंदगी ग्वालियर से शुरू होती है और फिर भोपाल और मुंबई जाकर आज के दिन ख़त्म होती है…उनके लिखे नग्मे, शायरी बरसों तक लोगों के जेहन में रहेंगे। सालों बाद आज के दौर में उनका ये शेर काफी मौजू सा लगता है-

चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ

हर एक प्यार का भूका दिखाई पड़ता है

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