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CJI की न्यायाधीशों को सलाह-सोशल मीडिया पर पोस्ट देखकर न बनाएं अपनी राय, वहां शोर ज्यादा सच्चाई कम

भारत के चीफ जस्टिस (CJI) एन वी रमन्ना ने कहा कि न्यायपालिका को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, विधायिका या कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, वर्ना ‘कानून का शासन’ भ्रामक हो जाएगा। CJI ने साथ ही न्यायाधीशों को सोशल मीडिया के प्रभाव के खिलाफ आगाह किया। जस्टिस रमन्ना ने कहा कि नए मीडिया उपकरण जिनमें किसी चीज को बढ़ाचढ़ा कर बताए जाने की क्षमता है लेकिन वे सही और गलत, अच्छे और बुरे और असली-नकली के बीच अंतर करने में असमर्थ हैं। इसलिए ‘मीडिया ट्रायल’ मामलों को तय करने में मार्गदर्शक कारक नहीं हो सकते।

CJI ने ‘17वें न्यायमूर्ति पी. डी. देसाई स्मृति व्याख्यान’ को डिजिटल तरीके से संबोधित करते हुए यह बात कही। उन्होंने कहा कि अगर न्यायपालिका को सरकार के कामकाज पर निगाह रखनी है तो उसे अपना काम करने की पूरी आजादी की जरूरत होगी। उन्होंने कहा कि साथ ही न्यायाधीशों को भी सोशल मीडिया मंचों पर जनता द्वारा व्यक्त की जाने वाली भावनात्मक राय से प्रभावित नहीं होना चाहिए। चीफ जस्टिस ने कहा कि न्यायाधीशों को इस तथ्य से सावधान रहना होगा कि इस प्रकार बढ़ा हुआ शोर जरूरी नहीं कि जो सही है उसे प्रतिबिंबित करता हो।

CJI ने कहा कि कार्यपालिका के दबाव के बारे में बहुत चर्चा होती है, एक चर्चा यह शुरू करना भी अनिवार्य है कि कैसे सोशल मीडिया के रुझान संस्थानों को प्रभावित कर सकते हैं। कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया के सामने आ रहे ‘‘अभूतपूर्व संकट” को देखते हुए, CJI ने कहा कि हमें आवश्यक रूप से रूक कर खुद से पूछना होगा कि हमने हमारे लोगों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ‘कानून के शासन’ का किस हद तक इस्तेमाल किया है। उन्होंने कहा कि मुझे लगने लगा था कि आने वाले दशकों में यह महामारी अभी और भी बड़े संकटों को सामने ला सकती है। निश्चित रूप से हमें कम से कम यह विश्लेषण करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए कि हमने क्या सही किया और कहां गलत किया

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